
लेखिका, जिनकी लेखनी में डर, असुरक्षा और मानवीय भावनाओं का गहरा असर है, हमेशा अपने शब्दों के माध्यम से पाठकों को एक नई दुनिया में ले जाती हैं। “जब शब्द डराए” उनकी दूसरी प्रकाशित किताब है, जो न केवल उनकी लेखनी की ताकत को दर्शाती है, बल्कि यह भी साबित करती है कि वे डर को सिर्फ एक भावना नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण जीवन अनुभव के रूप में देखती हैं।
लेखिका का कहना है कि शब्दों के जरिए ही इंसान अपने भीतर के सबसे गहरे डर, आशंकाएं और संघर्षों को व्यक्त कर सकता है। उनका मानना है कि शब्दों का डर के साथ गहरा संबंध है, और यह पुस्तक इसी पहलू को उजागर करती है। यह किताब पाठकों को न केवल उन डर से परिचित कराती है, जो मनुष्य की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाते हैं, बल्कि यह भी सिखाती है कि डर का सामना करना और उससे लड़ना, इंसान की सबसे बड़ी ताकत होती है।
लेखिका का खुद का जीवन एक उदाहरण है, जो यह बताता है कि कभी अपने सपनों से पीछे नहीं हटना चाहिए। अपनी किताब को प्रकाशित करने से पहले, उन्होंने अपने जीवन में अनेक चुनौतियों का सामना किया। हालांकि, यह किताब उनके जीवन के संघर्षों और उन अनुभवों का परिणाम है, जिनसे उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनका लेखन न केवल व्यक्तिगत संघर्षों को अभिव्यक्त करता है, बल्कि यह एक प्रेरणा बनकर उभरता है कि कैसे डर और असुरक्षा के बावजूद, इंसान अपने सपनों की ओर कदम बढ़ा सकता है।
लेखिका का जीवन उनके लेखन की तरह ही बहुत प्रेरणादायक है। वे मानती हैं कि जब भी हमें डर महसूस हो, तो हमें उससे भागना नहीं चाहिए, बल्कि उसका सामना करना चाहिए। उनका मानना है कि यही वह क्षण होता है, जब हम अपने भीतर की सबसे बड़ी ताकत को पहचानते हैं। इस भावना के साथ, लेखिका ने “जब शब्द डराए” को लिखा, ताकि पाठक अपने डर से न भागें, बल्कि उसे समझें और उससे परे जाकर अपनी पूरी क्षमता को महसूस करें।
उनकी लेखनी में जो गहरी संवेदनाएं हैं, वे उनके जीवन के संघर्षों, ख्वाबों और उन अनकहे लम्हों का हिस्सा हैं, जिन्हें उन्होंने कभी भी छोड़ने का नहीं सोचा। “जब शब्द डराए” के जरिए लेखिका अपने पाठकों को यह सिखाना चाहती हैं कि हर डर का सामना करना संभव है, और वह डर कभी भी हमारी सबसे बड़ी कमजोरी नहीं बनना चाहिए।

लेखिका: करिश्मा अग्रवाल